आचार्य श्री रामलाल जी म. सा.
व्यसनमुक्ति के प्रबल प्रेरक आचार्य-प्रवर श्री रामलालजी म.सा.
निवासी : देशनोक |
पिता का नाम : श्री नेमचन्दजी |
माता का नाम : श्रीमती गवराबाई |
गोत्र : भूरा |
जन्म तिथि : चैत्र सुदी 14, वि.सं. 2009 |
दीक्षा तिथि : माघ सुदी 12, वि.सं. 2031 |
दीक्षा स्थल : देशनोक |
दीक्षा गुरु : आचार्य श्री नानेश |
दीक्षा के समय उम्र : 22 वर्ष 9 माह 8 दिन |
युवाचार्य पद तिथि : फाल्गुन सुदी 3, वि.सं. 2048 |
युवाचार्य पद प्रदान स्थल : बीकानेर |
युवाचार्य पद के समय दीक्षा पर्याय : 17 वर्ष 21 दिन |
युवाचार्य पद के समय उम्र : 39 वर्ष 10 माह 10 दिन |
युवाचार्य काल में दीक्षा (संतों की) : 9 |
आचार्य पद तिथि : कार्तिक बदी 3, वि.सं. 2056 |
आचार्य पद स्थल : उदयपुर |
आचार्य पद के समय उम्र : 47 वर्ष 6 माह 4 दिन |
आचार्य पद के समय दीक्षा पर्याय : 24 वर्ष 6 माह 6 दिन |
शासनकाल में दीक्षा (संत-सती की) : 254 |
निर्ग्रन्थ श्रमण संस्कृति के अद्वितीय चिराग
विश्व गुरु की उपमा से उपमित भारत प्रारम्भ से ही महापुरुषों का देश रहा है। प्रत्येक युग में किसी न किसी महापुरुष का अवतरण होता है और वे विरल आत्माएँ संसार की असारता को जानकर निरंजन-निराकार स्वरूप बनने के लिये प्रभु महावीर के शासन में प्रव्रजित होकर आत्मा से महात्मा, महात्मा से परमात्मा बनने के लिये प्रयत्नशील रहती हैं। ऐसी ही एक पुण्यात्मा आज से लगभग 69 वर्ष पूर्व राजस्थान के बीकानेर जिले के प्रसिद्ध गाँव देशनोक में माता गवरादेवी की कोख से अवतरित हुई, जिसने पिता नेमि के कुल को उज्ज्वल किया।
भगवान महावीर और गौतम बुद्ध की माताओं ने अद्भुत अपूर्व स्वप्न देखे थे। ऐसे ही माता गवराबाई ने अर्द्धरात्रि में एक शुभ स्वप्न देखा कि किसी अदृश्य शक्ति ने उनकी गोद में एक दीप्तिमंत बालक को लाकर रख दिया। नौ माह बाद जिस बालक का जन्म हुआ वह पहले जयचंद बाद में रामलाल बना। उसके बाद साधुमार्गी परम्परा के हुक्मगच्छ का नौवां पट्टनायक बनकर आचार्य श्री रामलालजी म.सा. अथवा रामेश के रूप में धर्म प्रभावना के पुनीत कार्य में संलग्न हैं।
बाल्यकाल में बालक जयचन्द प्रायः व्याधियों से ग्रस्त रहता था। कालान्तर में बाबा रामदेव के नाम पर उसे रामलाल कहा जाने लगा। समय के पाबन्द और धुन के पक्के राम की शुरू से ही धर्म में अपार श्रद्धा थी। देशनोक में जब श्री सत्येन्द्रमुनि का चातुर्मास चल रहा था तब सात वर्ष की अल्पवय में बालक राम ने प्रवचन-सत्संग का पूरा लाभ उठाया तथा उस समय प्याज, लहसुन जैसे तामस प्रवृत्ति के खाद्यों के त्याग कर दिया। एक दिन अनाथीमुनि की पुस्तक पढते-पढते ही जीवन की दिशा बदल गई। अनाथीमुनि का रोग धर्म शक्ति से ठीक हुआ। राम ने भी संकल्प लिया कि यदि मेरा चर्म रोग दो साल में ठीक हो गया तो मैं साधु बन जाऊँगा। संकल्प महान् है। यही हुआ, आपका चर्म रोग ठीक हो गया। आपने दीक्षा लेने का निर्णय ले लिया। लगभग 20 वर्ष की अल्पायु में पितृ वियोग हुआ। औपचारिकता पूर्ण कर राम ने जयपुर स्थित लाल भवन में आचार्य श्री नानेश के प्रथम दर्शन किये। आचार्यश्री के दर्शन के बाद आप में वैराग्य का रंग और भी तीव्रता से गहराने लगा। आप आचार्यश्री के सानिध्य में रहने लगे। आपका वैराग्य उतारने के लिये अभिभावकों के सभी प्रयास विफल रहे। आपने अनेक छोटे-बडे नियम ग्रहण कर लिये जैसे- सचित्त पानी नहीं पीना, चप्पल-जूते नहीं पहनना, चौविहार करना, जमीकन्द नहीं खाना आदि। सभी प्रत्याख्यानों का पालन आप दृढ़ता से करने लगे। संघ की सुश्राविका उमरावबाई मूथा ने आपके वैराग्य की परीक्षा ली, जिसमें आप खरे उतरे। आपके वैराग्यकाल की सबसे कठिन परीक्षा डूंगरगढ़ एवं नापासर के बीच रेत के धोरों पर चिलचिलाती धूप में खडा रहने की थी। आप वैराग्य अवस्था में साधु समान वस्त्र पहनते थे। आपका वैराग्य जीवन अपने आप में अनोखा था।
सरदारशहर चातुर्मास में आचार्यश्री के पास रहकर ज्ञानार्जन करते रहे। शीघ्र दीक्षा के लिए आतुर राम बीदासर, देशनोक, नोखा, गंगाशहर, भीनासर आदि स्थानों पर संबंधियों से दीक्षा में सहयोगी बनने का निवेदन करता घूमता रहा। अंत में मातुश्री एवं भ्राताश्री से आज्ञापत्र प्राप्त करने जदिया जाना पड़ा। राम की दीक्षा हेतु उत्कृष्ट भावना देखकर उन्होंने आज्ञापत्र पर हस्ताक्षर कर दिये। इसके उपरान्त शेष औपचारिकताएँ भी पूर्ण हो गई। माघ शुक्ला 12, वि.सं. 2031 को देशनोक में मुमुक्षु राम का दीक्षा कार्यक्रम सम्पन्न हो गया। दीक्षा के बाद मुनि रामलालजी के अलग विहार कराने का प्रसंग बना, परन्तु आचार्यश्री ने उन्हें अपने पास ही रखने का निर्णय किया।
आचार्यश्री का मुनि राम को अपने साथ रख लेने का निर्णय मात्र संयोग नहीं था। लगता है आचार्य-प्रवर ने मुनि राम की पात्रता परखने तथा भावी उत्तराधिकारी का प्रशिक्षण देने के लिए ऐसा किया होगा। राम मुनि में उन्हें भी निश्चित रूप से उन गुणों की झलक दिखाई होगी, जो किसी मुनि को युवाचार्य और तदुपरान्त आचार्य के गौरवशाली पद तक पहुँचाते हैं। उनकी दिव्यदृष्टि ने अनगढ़ रत्न को पहचान लिया होगा और उसे तराशने का कार्य करने का संकल्प लिया होगा।
मुनि राम का आगम शास्त्रों का गहन अध्ययन सतत गतिमान था, जो जोधपुर चातुर्मास के दौरान प्रखरतर हो गया। उनकी योग्यता, प्रतिभा और निष्ठा से प्रभावित होकर पूज्य गुरुदेव ने अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य विद्यार्थी मुनि पर छोड़ दिये। आपका शास्त्रीय एवं आध्यात्मिक ज्ञान कितना गहन था इसका प्रमाण तो वह पत्र है जो तत्वज्ञानी श्रावकवर्य श्री लालचन्दजी नाहटा ने अपनी जिज्ञासाओं का समाधान प्राप्त होने पर लिखा था। उन्होंने लिखा था- परमागम रहस्यज्ञाता श्री राममुनिजी म.सा. द्वारा आगमिक जिज्ञासाओं के समाधान में अपूर्व प्रतिभा देखकर मैं चमत्कृत हो गया। कुछ समाधान तो प्रचलित धारणाओं से हटकर भी इतने युक्तियुक्त और प्रभाव पुरस्सर है कि देखकर स्थानीय विद्वान् भी दंग रह गये। मुनि राम की ऐसी अनोखी प्रतिभा और विद्वत्ता को देखकर ही आचार्य श्री नानेश ने इन्हें 22 सितंबर, 1990 को चित्तौड़गढ़ में मुनिप्रवर पद से विभूषित कर चातुर्मासिक विनंतियाँ सुनने, चातुर्मास की घोषणा करने, संघों के विवाद सुनकर समाधान करने का अधिकार प्रदान कर दिया। तत्पश्चात् उन्हें ही युवाचार्य यानी अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया।
आचार्य श्री नानेश ने अपने साक्षात्कार में मुनि रामेश की पात्रता को पुष्ट करते हुए कहा था- युवाचार्य श्री रामलालजी म.सा. लगभग 19-20 वर्षों से वैराग्यकाल से ही मेरे पास रह रहे हैं। मैंने उन्हें यथाशक्ति नजदीक से देखा है। उनकी निष्पक्षता, न्यायप्रियता, निर्ग्रन्थ-श्रमण संस्कृति पर दृढ आस्था, पूर्व के आचार्यों द्वारा निर्ग्रन्थ श्रमण संस्कृति की रक्षा हेतु उठाये गये चरणों के प्रति समर्पण आदि अनेक विशेषताओं को ध्यान में रखकर मैंने उन्हें अपना उत्तराधिकारी घोषित किया है। यह थी परख उस जौहरी की, जिसने हीरे को लगभग 20 वर्षों तक परखा।
कहना तो यह चाहिये कि परखा ही नहीं, उन बीस वर्षों में उसे धीरे-धीरे तराशा भी और जब वह तराश पूरी हो गई, तो एक जगमगाते हीरे का उज्ज्वल रूप उसमें प्रगट हो गया, तब उसे चतुर्विध संघ के मुकुट में शीर्ष स्थान पर जड दिया। आज वह हीरा भानु के समान चमक रहा है।
आचार्य श्री नानेश के महाप्रयाण के बाद कार्तिक बदी 3, वि.सं. 2056 को युवाचार्य रामेश को आचार्य पद की चादर ओढाई गई। इस प्रकार उन पर अपने पूर्ववर्ती आचार्यों की जिम्मेदारियाँ डाल दी गई थी। आचार्य श्री नानेश द्वारा प्रारंभ किये गये समाज-सुधार और संस्कार सुधार के कार्यक्रमों को निर्धारित दिशा में आगे बढा रहे हैं। आचार्य बनने के बाद आपका प्रथम चातुर्मास जयपुर हुआ। चित्तौड़गढ़ जिले के मंगलवाड चौराहे के निकटवर्ती गाँवों में निवास करने वाली बावरी जाति के लोगों में भी अपने उद्धार की प्रेरणा उत्पन्न हुई। उन्हें विश्वास था कि धर्मपाल प्रतिबोधक आचार्य श्री नानेश के उत्तराधिकारी इनका भी उद्धार कर सकते हैं। इसी विश्वास के बल पर बावरियों के लगभग 25 गाँवों के प्रमुख प्रतिनिधियों के रूप में 132 व्यक्ति आचार्य श्री रामेश के चरणों में उपस्थित हुए। आचार्यदेव ने उनकी पीड़ा समझी और उनकी भावना का आदर करते हुए 10 नवम्बर, 2000 को प्रातः 10:50 बजे उनसे सप्तकुव्यसनों के त्याग की प्रतिज्ञाओं का उच्चारण करवाया तथा उन्हें सदाचार, सात्विकता एवं प्रामाणिकता का तीन सूत्रीय मंत्र भी दिया। उन सभी दलितों को सिरीवाल से विभूषित किया। यह समाजोत्थान की दिशा में महत्त्वपूर्ण कार्य था। आपके 22 वर्ष के आचार्यत्व काल में लगभग 254 दीक्षाएँ हुई। आप जहाँ भी विराजते हैं वहाँ एक लघु भारत स्वतः ही एकत्र हो जाता है। आपका सुशासन सुदीर्घ एवं जन-जन के लिये कल्याणकारी बनेगा।