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आचार्यजन

चरम तीर्थेश भगवान महावीर

चरम तीर्थेश भगवान महावीर स्वामी का जीवन परिचय

पिता का नाम राजा सिद्धार्थ
माता का नाम रानी त्रिशला
भाई का नाम नन्दीवर्धन
बहन का नाम सुदर्शना
जन्म स्थल क्षत्रिय कुण्ड
जन्म देश पूर्व
लांछन सिंह
यक्ष मातंग (ब्रह्म शान्ति)
यक्षिणी सिद्धायिका
शरीर की ऊँचाई 7 हाथ
वर्ण स्वर्ण-पीला (कांचन)
च्यवन कल्याणक आश्विन सुदी 6
च्यवन नक्षत्र उत्तराफाल्गुनी
च्यवन राशि कन्या
पूर्व भव नगरी अहिछत्रा
कौनसे देवलोक से च्यवन प्राणत
तीर्थंकर नाम कर्म का भव नंदन
पूर्व भव नाम नंदन
पूर्व भव गुरु पोट्टिलक
पूर्व भव स्वर्ग प्राणत देवलोक
भव संख्या 27 (सत्तावीस)
गर्भकाल स्थिति 9 माह साढ़े सात दिन
जन्म कल्याण चैत्र शुक्ल त्रयोदशी (30 मार्च 599 ई.पू.)
बाल्यावस्था का नाम वर्धमान, वीर, ज्ञातपुत्र, महावीर
जन्म नक्षत्र उत्तरा फाल्गुनी
जन्म राशि कन्या
गण मानव
वंश इक्ष्वाकु
गोत्र काश्यप
योनि महिष
कुमार अवस्था 30 वर्ष
पत्नी का नाम यशोदा
पुत्री का नाम प्रियदर्शना
जंवाई का नाम जमाली
पिता की गति माहेन्द्र देवलोक
माता की गति माहेन्द्र देवलोक
दीक्षा नक्षत्र उत्तरा फाल्गुनी
दीक्षा राशि कन्या
दीक्षा नगरी क्षत्रिय कुण्ड
दीक्षा भूमि ज्ञातखण्ड वन
दीक्षा वृक्ष अशोक वृक्ष
दीक्षा दाता स्वयं
दीक्षा शिविका चन्द्रप्रभा
दीक्षा का समय मध्यान्ह (दोपहर)
दीक्षा के समय तप छट्ठ (बेला)
दीक्षा लेते ही ज्ञान चौथा मनः पर्यय
लोच पंच मुष्टि
दीक्षा के बाद पारणे का द्रव्य परमान्न-खीर
प्रथम पारणे की नगरी कोल्लाक
प्रथम आहार बहराने वाले बहुलद्विज
साधना अवधि साढ़े बारह वर्ष
प्रथम व अन्तिम उपसर्ग ग्वाले द्वारा
केवलज्ञान कल्याण वैशाख सुदी 10
केवलज्ञान नक्षत्र उत्तरा फाल्गुनी
केवलज्ञान राशि कन्या
केवलज्ञान नगरी जंम्तिका नगरी बाहर
केवलज्ञान भूमि ऋजुवालिका नदी का तट
केवलज्ञान के समय तप छट्ठ (बेला)
उत्कृष्ट तप छः माह
केवलज्ञान वृक्ष शाल वृक्ष
ज्ञान वृक्ष की ऊँचाई 21 धनुष
समवसरण की रचना 4 कोश (1 योजन)
प्रथम देशना का विषय यति धर्म, गृहस्थ धर्म, गणधर वाद
गणधर की संख्या 11 गणधर
प्रथम शिष्य इन्द्रभूति गौतम
प्रथम गणधर इन्द्रभूति
प्रथम शिष्या चन्दना (चन्दनबाला)
मुख्य भक्त राजा श्रेणिक
केवलज्ञानी 700
मनः पर्ययज्ञानी 500
अवधिज्ञानी 1300
चौदह पूर्व धारी 300
वैक्रिय लब्धिधारी 700
साधुओं की संख्या 14,000
साध्वियों की संख्या 36,000
वादी मुनि 1400
श्रावकों की संख्या 1,59,000
श्राविकाओं की संख्या 3,18,000
चारित्र पाँच (सामायिक, छझोपस्थापनिक, परिहार, विशुद्धि सूक्ष्म सम्पराय, यथाख्यात)
सामायिक चार (सम्यक्त्व, श्रुत, देशविरति, सर्वविरति)
प्रतिक्रमण पाँच (राइय, देवसिय, पक्खी, चौमासी, सम्वत्सर)
साढ़े बारह वर्ष में आहार दिन 349 दिन
तेरह अभिग्रह का पारणा कौशाम्बी में चन्दनबाला के हाथों
छद्मस्थकाल में तप 14 प्रकार के तप
निर्वाण कल्याणक कार्तिक कृष्ण अमावस्या

भगवान महावीर पाट परम्परा

भगवान महावीर पाट परम्परा

प्रभु महावीर पाट परम्परा के 82 आचार्यजन

1. आचार्य श्री सुधर्मा स्वामीजी म.सा. 2. आचार्य श्री जम्बू स्वामीजी म.सा. 3. आचार्य श्री प्रभव स्वामीजी म.सा.
4. आचार्य श्री शयंभवाचार्यजी म.सा. 5. आचार्य श्री यषोभद्रजी म.सा. 6. आचार्य श्री संभूतिविजयजी म.सा.
7. आचार्य श्री भद्रबाहुजी म.सा. 8. आचार्य श्री स्थूलिभद्रजी म.सा. 9. आचार्य श्री महागिरिजी म.सा.
10. आचार्य श्री बलिसिहंजी म.सा. 11. आचार्य श्री सोहन स्वामी (सुहस्ती ) जी म.सा. 12. आचार्य श्री वीरसिंहजी.म.सा.
13. आचार्य श्री सांडिल्याचार्यजी म.सा. 14. आचार्य श्री जीवधरजी म.सा. 15. आचार्य श्री आर्यसमुद्रजह म.सा.
16. आचार्य श्री आर्यनंदिलजी म.सा. 17. आचार्य श्री नागहस्तीजी म.सा. 18. आचार्य श्री रेवंतगणिजी म.सा.
19. आचार्य श्री सिंहगणीजी म.सा. 20. आचार्य श्री स्थडिलाचार्यजी म.सा. 21. आचार्य श्री हेमवंतजी म.सा.
22. आचार्य श्री नागजीतजी म.सा. 23. आचार्य श्री गोविन्दाचार्यजी म.सा. 24. आचार्य श्री भूतदीनजी म.सा.
25. आचार्य श्री छोगगणीजी म.सा. 26. आचार्य श्री दुःसहगणीजी म.सा. 27. आचार्य श्री देवर्धिागणी क्षमाश्रमणजी म.सा.
28. आचार्य श्री वीरभद्राचार्यजी म.सा. 29. आचार्य श्री शंकरसेनाचार्या म.सा. 30. आचार्य श्री यषोभद्रजी म.सा.
31. आचार्य श्री वीरसेनाचार्यजी म.सा. 32. आचार्य श्री वीरजसजी म.सा. 33. आचार्य श्री जयसेनाचार्यजी म.सा.
34. आचार्य श्री हरिषेणजी म.सा. 35. आचार्य श्री जयसेनाचार्यजी म.सा. 36. आचार्य श्री जगमालजी म.सा.
37. आचार्य श्री देवऋषिजी म.सा. 38. आचार्य श्री भीमऋषिजी म.सा. 39. आचार्य श्री कृष्णऋषिजी म.सा.
40. आचार्य श्री राजऋषिजी म.सा. 41. आचार्य श्री देवसेनजी म.सा. 42. आचार्य श्री शंकरसेन द्वितीय जी म.सा.
43. आचार्य श्री लक्ष्मीलाभजी म.सा. 44. आचार्य श्री रामऋषिजी म.सा. 45. आचार्य श्री पद्मऋषिजी म.सा.
46. आचार्य श्री हरिसेनजी म.सा. 47. आचार्य श्री कुषलऋषिजी म.सा. 48. आचार्य श्री उपनीऋषिजी म.सा.
49. आचार्य श्री जयसेनजी म.सा. 50. आचार्य श्री विजयसेनजी म.सा. 51. आचार्य श्री देवसेनजी म.सा.
52. आचार्य श्री सूरसेनजी म.सा. 53. आचार्य श्री महासूरसेनजी म.सा. 54. आचार्य श्री महासेनजी म.सा.
55. आचार्य श्री जीवाजी़ऋषिजी म.सा. 56. आचार्य श्री गजसेनजी म.सा. 57. आचार्य श्री मिश्रसेनजी म.सा.
58. आचार्य श्री विजयसिंहजी म.सा. 59. आचार्य श्री शिवराजजी म.सा. 60. आचार्य श्री लालऋषिजी म.सा.
61. आचार्य श्री ज्ञानजीऋषिजी म.सा. 62. आचार्य श्री भाणोजी म.सा. 63. आचार्य श्री रूपजी स्वामीजी म.सा.
64. आचार्य श्री जीवाजीऋषिजी म.सा. 65. आचार्य श्री कुंवरजी म.सा. 66. आचार्य श्री तेजसिंहजी म.सा.
67. आचार्य श्री हरजीऋषिजी म.सा. 68. आचार्य श्री गो धजी म.सा. 69. आचार्य श्री फरसरामजी म.सा.
70. आचार्य श्री लोकमनजी म.सा. 71. आचार्य श्री महारामजी म.सा. 72. आचार्य श्री दौलतरा म जी म.सा.
73. आचार्य श्री लालचन्दजी म.सा. 74. आचार्य श्री हुक्मीचन्दजी म.सा. 75. आचार्य श्री शिवलालजी म.सा.
76. आचार्य श्री उदयसागरजी म.सा. 77. आचार्य श्री चौथमलजी म.सा. 78. आचार्य श्री श्रीलालजी म.सा.
79. आचार्य श्री जवाहरलालजी म.सा. 80. आचार्य श्री गणेशलालजी म.सा. 81. आचार्य श्री नानालालजी म.सा.
82. आचार्य श्री रामलालजी म.सा.

पूज्य हुक्मीचन्दजी म. सा.

पूज्य हुक्मीचन्दजी म. सा.

महान् क्रियोद्धारक पूज्य हुक्मीचन्दजी म. सा. का जीवन परिचय

निवासी टोडारायसिंह
पिता का नाम श्री रतनचन्दजी
माता का नाम श्रीमती मोतीबाई
गोत्र चपलोत
जन्म तिथि पौष सुदी 9 वि.सं. 1860
दीक्षा तिथि मिगसर सुदी 2 वि.सं. 1879
दीक्षा स्थल बूंदी
दीक्षा गुरु पूज्य श्री लालचन्दजी म.सा.
दीक्षा के समय उम्र 18 साल 10 माह 23 दिन
युवाचार्य पद तिथि मिगसर बदी 1 वि.सं. 1890
युवाचार्य पद के समय दीक्षा पर्याय 10 साल 11 माह 14 दिन
युवाचार्य पद के समय उम्र 29 साल 10 माह 7 दिन
आचार्य पद तिथि माघ सुदी 5 वि.सं. 1907
आचार्य पद स्थल बीकानेर
आचार्य पद के समय उम्र 47 वर्ष 26 दिन
आचार्य पद के समय दीक्षा पर्याय 28 वर्ष 2 माह 3 दिन
आचार्य शासनकाल 9 वर्ष 3 दिन
शासनकाल में दीक्षा (संतों की) 39
कुल आयु 56 वर्ष 3 माह 26 दिन
विवाहित/अविवाहित अविवाहित
स्वर्गवास तिथि बैसाख सुदी 5 वि.सं. 1917
स्वर्गवास स्थल जावद

आचार्य श्री शिवलाल जी म. सा.

आचार्य श्री शिवलाल जी म. सा.

परम तपस्वी आचार्य श्री शिवलालजी म.सा. का जीवन परिचय

निवासी धामनिया
पिता का नाम श्री टीकमदासजी
माता का नाम श्रीमती कुन्दनबाई
गोत्र बोडावत
जन्म तिथि पौष सुदी 10 वि.सं. 1867
दीक्षा तिथि मिगसर सुदी 1 वि.सं. 1891
दीक्षा स्थल रतलाम
दीक्षा गुरु मुनि दयालचन्दजी म.सा.
दीक्षा के समय उम्र 23 वर्ष 10 माह 21 दिन
युवाचार्य पद तिथि माघ सुदी 5 वि.सं. 1907
युवाचार्य पद प्रदान स्थल बीकानेर
युवाचार्य पद के समय दीक्षा पर्याय 16 वर्ष 2 माह 4 दिन
युवाचार्य पद के समय उम्र 40 वर्ष 25 दिन
आचार्य पद तिथि बैसाख सुदी 5 वि.सं. 1917
आचार्य पद स्थल जावद
आचार्य पद के समय उम्र 49 वर्ष 3 माह 25 दिन
आचार्य पद के समय दीक्षा पर्याय 25 वर्ष 5 माह 4 दिन
आचार्य शासनकाल 16 वर्ष 8 माह 2 दिन
शासनकाल में दीक्षा 57
कुल आयु 66 वर्ष 11 माह 26 दिन
विवाहित/अविवाहित अविवाहित
स्वर्गवास तिथि पौष सुदी 6 वि.सं. 1933
स्वर्गवास स्थल जावद

आचार्य श्री उदयसागरजी म. सा.

आचार्य श्री उदयसागरजी म. सा.

वादी मानमर्दक आचार्य श्री उदयसागरजी म.सा. का जीवन परिचय

निवासी जोधपुर
पिता का नाम श्री नथमलजी
माता का नाम श्रीमती जीवीबाई
गोत्र खींवेसरा
जन्म तिथि आसोज सुदी 15 वि.सं. 1876
दीक्षा तिथि चैत्र सुदी 11 वि.सं. 1908
दीक्षा स्थल बीकानेर
दीक्षा गुरू मुनि हरकचन्दजी म.सा.
दीक्षा के समय उम्र 31 वर्ष 5 माह 26 दिन
युवाचार्य पद तिथि पौष सुदी 7 वि.सं. 1925
युवाचार्य पद प्रदान स्थल जावद
युवाचार्य पद के समय दीक्षा पर्याय 18 वर्ष 8 माह 26 दिन
युवाचार्य पद के समय उम्र 49 वर्ष 2 माह 22 दिन
युवाचार्य काल 7 वर्ष 11 माह 29 दिन
युवाचार्य काल में दीक्षा (संतों की) 32
आचार्य पद तिथि पौष सुदी 6 वि.सं. 1933
आचार्य पद स्थल जावद
आचार्य पद के समय उम्र 57 वर्ष 2 माह 21 दिन
आचार्य पद के समय दीक्षा पर्याय 25 वर्ष 8 माह 25 दिन
आचार्य शासनकाल 21 वर्ष 1 माह 4 दिन
शासनकाल में दीक्षा (संतों की) 94
कुल आयु 78 वर्ष 3 माह 25 दिन
विवाहित/ अविवाहित अविवाहित
स्वर्गवास तिथि माघ सुदी 10 वि.सं. 1954
स्वर्गवास स्थल रतलाम

आचार्य श्री चौथमलजी म. सा.

आचार्य श्री चौथमलजी म. सा.

शान्तदान्त निरहंकारी आचार्य श्री चौथमलजी म.सा. का जीवन परिचय

निवासी पाली
पिता का नाम श्री पोखरदासजी
माता का नाम श्रीमती हीराबाई
गोत्र धोका
जन्म तिथि बैसाख सुदी 4 वि.सं. 1885
दीक्षा तिथि चैत्र सुदी 12 वि.सं. 1909
दीक्षा स्थल ब्यावर
दीक्षा गुरू मुनि हरकचन्दजी म.सा.
दीक्षा के समय उम्र 23 वर्ष 1 माह 18 दिन
युवाचार्य पद तिथि आसोज सुदी 15 वि.सं. 1954
युवाचार्य पद प्रदान स्थल जावद
युवाचार्य पद के समय दीक्षा पर्याय 45 वर्ष 6 माह 3 दिन
युवाचार्य पद के समय उम्र 69 वर्ष 5 माह 11 दिन
युवाचार्य काल 2 माह 25 दिन
आचार्य पद तिथि माघ सुदी 10 वि.सं. 1954
आचार्य पद स्थल रतलाम
आचार्य पद के समय उम्र 69 वर्ष 9 माह 6 दिन
आचार्य पद के समय दीक्षा पर्याय 45 वर्ष 9 माह 28 दिन
आचार्य शासनकाल 2 वर्ष 9 माह
शासनकाल में दीक्षा 32
कुल आयु 72 वर्ष 6 माह 6 दिन
विवाहित/ अविवाहित अविवाहित
स्वर्गवास तिथि कार्तिक सुदी 9 (10) वि.सं. 1957
स्वर्गवास स्थल रतलाम

आचार्य श्री श्रीलालजी म. सा.

आचार्य श्री श्रीलालजी म. सा.

दुर्जय कामविजेता आचार्य श्री श्रीलालजी म.सा. का जीवन परिचय

निवासी टोंक
पिता का नाम श्री चुन्नीलालजी
माता का नाम श्रीमती चाँदबाई
गोत्र बम्ब
जन्म तिथि आषाढ़ सुदी 12, वि.सं. 1926
दीक्षा तिथि माघ बदी 7, वि.सं. 1945
दीक्षा स्थल बणोठ
दीक्षा गुरू मुनि वृद्धिचन्दजी म.सा.
दीक्षा के समय उम्र 21 वर्ष 4 माह 19 दिन
युवाचार्य पद तिथि कार्तिक सुदी 1, वि.सं. 1957
युवाचार्य पद प्रदान स्थल रतलाम
युवाचार्य पद के समय दीक्षा पर्याय 9 वर्ष 11 माह
युवाचार्य पद के समय उम्र 31 वर्ष 3 माह 19 दिन
युवाचार्य काल 8 दिन
आचार्य पद तिथि कार्तिक सुदी 10 वि.सं. 1957
आचार्य पद स्थल रतलाम
आचार्य पद के समय उम्र 31 वर्ष 3 माह 27 दिन
आचार्य पद के समय दीक्षा पर्याय 9 वर्ष 11 माह 8 दिन
आचार्य शासनकाल 19 वर्ष 7 माह 24 दिन
शासनकाल में दीक्षा (संतों की) 157
कुल आयु 51 वर्ष 11 माह 21 दिन
विवाहित/अविवाहित विवाहित (मानबाई)
स्वर्गवास तिथि आषाढ सुदी 3 वि.सं. 1977
स्वर्गवास स्थल जैतारण

आचार्य श्री जवाहरलालजी म. सा.

आचार्य श्री जवाहरलालजी म. सा.

ज्योतिर्धर क्रांतदृष्टा आचार्य श्री जवाहरलालजी म.सा. का जीवन परिचय

निवासी थांदला
पिता का नाम श्री जीवराजजी
माता का नाम श्रीमती नाथीबाई
गोत्र कवाड
जन्म तिथि कार्तिक सुदी 4, वि.सं. 1932
दीक्षा तिथि मिगसर सुदी 2, वि.सं. 1948
दीक्षा स्थल लीमडी-पंचमहल
दीक्षा गुरू मुनि श्रीमानजी (मगनजी)
दीक्षा के समय उम्र 16 वर्ष 28 दिन
युवाचार्य पद तिथि चैत्र बदी 9, वि.सं. 1975
युवाचार्य पद प्रदान स्थल रतलाम
युवाचार्य पद के समय दीक्षा पर्याय 16 वर्ष 3 माह 22 दिन
युवाचार्य पद के समय उम्र 42 वर्ष 4 माह 20 दिन
युवाचार्य काल 2 वर्ष 3 माह 9 दिन
आचार्य पद तिथि आषाढ़ सुदी 3, वि.सं. 1977
आचार्य पद स्थल भीनासर
आचार्य पद के समय उम्र 44 वर्ष 7 माह 29 दिन
आचार्य पद के समय दीक्षा पर्याय 28 वर्ष 7 माह 1 दिन
आचार्य शासनकाल 23 वर्ष 5 दिन
शासनकाल में दीक्षा 57
कुल आयु 67 वर्ष 8 माह 4 दिन
विवाहित/अविवाहित अविवाहित
स्वर्गवास तिथि आषाढ़ सुदी 8, वि.सं. 2000
स्वर्गवास स्थल भीनासर

आचार्य श्री गणेशलालजी म. सा.

आचार्य श्री गणेशलालजी म. सा.

संयम साधना के प्रबल प्रेरक आचार्य-प्रवर श्री गणेशलालजी म.सा. का जीवन परिचय

निवासी उदयपुर
पिता का नाम श्री सायबलालजी
माता का नाम श्रीमती इन्द्राबाई
गोत्र मारू
जन्म तिथि श्रावण बदी 3, वि.सं. 1947
दीक्षा तिथि मिगसर बदी 1, वि.सं. 1962
दीक्षा स्थल उदयपुर
दीक्षा गुरु मुनि मोतीलालजी म.सा.
दीक्षा के समय उम्र 15 वर्ष 3 माह 28 दिन
युवाचार्य पद तिथि फाल्गुन सुदी 3, वि.सं. 1990
युवाचार्य पद प्रदान स्थल जावद
युवाचार्य पद के समय दीक्षा पर्याय 28 वर्ष 3 माह 17 दिन
युवाचार्य पद के समय उम्र 43 वर्ष 7 माह 15 दिन
युवाचार्य काल 9 वर्ष 4 माह 5 दिन
युवाचार्य काल में दीक्षा (संतों की) 18
आचार्य पद तिथि आषाढ़ सुदी 8, वि.सं. 2000
आचार्य पद स्थल भीनासर
आचार्य पद के समय उम्र 52 वर्ष 11 माह 20 दिन
आचार्य पद के समय दीक्षा पर्याय 37 वर्ष 7 माह 22 दिन
आचार्य शासनकाल 19 वर्ष 6 माह 9 दिन
शासनकाल में दीक्षा 9
कुल आयु 72 वर्ष 5 माह 14 दिन
विवाहित/ अविवाहित विवाहित (कमलाबाई)
स्वर्गवास तिथि माघ बदी 2, वि.सं. 2019
स्वर्गवास स्थल उदयपुर

आचार्य श्री नानालालजी म. सा.

आचार्य श्री नानालालजी म. सा.

समता विभूति समीक्षण ध्यान योगी धर्मपाल प्रतिबोधक आचार्य-प्रवर श्री नानालालजी म.सा. का जीवन परिचय

निवासी दांता
पिता का नाम श्री मोडीलालजी
माता का नाम श्रीमती शृंगार बाई
गोत्र पोखरणा
जन्म तिथि जेठ सुदी 2, वि.सं. 1977
दीक्षा तिथि पौष सुदी 8, वि.सं. 1996
दीक्षा स्थल कपासन
दीक्षा गुरु युवाचार्य श्री गणेशलालजी म.सा.
दीक्षा के समय उम्र 19 वर्ष 7 माह 6 दिन
युवाचार्य पद तिथि आसोज सुदी 2, वि.सं. 2019
युवाचार्य पद प्रदान स्थल उदयपुर
युवाचार्य पद के समय दीक्षा पर्याय 22 वर्ष 8 माह 24 दिन
युवाचार्य पद के समय उम्र 42 वर्ष 4 दिन
युवाचार्य काल में दीक्षा (संतों की) 9
आचार्य पद तिथि माघ बदी 2 वि.सं. 2019
आचार्य पद स्थल उदयपुर
आचार्य पद के समय उम्र 42 वर्ष 7 माह 15 दिन
आचार्य पद के समय दीक्षा पर्याय 23 वर्ष 9 दिन
आचार्य शासनकाल 36 वर्ष 9 माह 29 दिन
शासनकाल में दीक्षा (संतों की) 59
कुल आयु 89 वर्ष 5 माह 14 दिन
विवाहित/ अविवाहित अविवाहित
स्वर्गवास तिथि कार्तिक बदी 3, वि.सं. 2056
स्वर्गवास स्थल उदयपुर

आचार्य श्री नानेशः व्यक्तित्व एवं कृतित्व

विश्वप्रसिद्ध कर्मवीरों और धर्मवीरों की भूमि राजस्थान के मेवाड़ का छोटा-सा दांता गांव भोपालसागर, कपासन के नजदीक प्राकृतिक शोभा और रमणीय वातावरण में बसा हुआ है। इस छोटे से गाँव में पिता श्री मोडीलालजी पोखरना एवं मातुश्री शृंगार पोखरना के यहाँ आज से 89 वर्ष पूर्व पुत्र रूप में एक नन्हें-से शिशु ने जन्म लिया। इस शिशु का जन्म नाम गोवर्धन रखा गया किन्तु परिवार में सबसे छोटा होने के कारण तथा सयाने बालपन के कारण सभी इस नवजात को नाना नाम से संबोधित करने लगे। बाल्यकाल में ही बालक नाना के चेहरे की तेजस्विता और मुखमण्डल की आभा से ऐसा प्रतीत होता था कि यह नाना अपनी संयम साधना से आगे चलकर कुछ विलक्षण करने वाला है। बचपन का यह नाना नाम ही भविष्य में आचार्य श्री नानेश के रूप में एक दिव्य प्रभा के रूप में विकसित हुआ।

बाल्यकाल से वैराग्य की यात्रा

दांता इतना छोटा-सा गाँव है कि उस समय वहाँ प्रायः कच्चे मकान ही हुआ करते थे। आवागमन हेतु सुव्यवस्थित सड़क मार्ग तक उपलब्ध नहीं था। ऐसे अविकसित गांव में अपना बाल्यकाल व्यतीत करते हुए भी बालक नाना ने अपने चिन्तन को एक नई दिशा दी और स्वयं को आत्मविकास के मार्ग पर अग्रेषित किया। एक बार चारित्र आत्मा से बालक नाना प्रवचन सुन रहे थे, प्रवचन में पांचवें आरे दुःषमा काल के पश्चात् आने वाले छठे आरे दुःषमा-दुःषमा काल का विवरण चल रहा था। दुःषमा-दुःषमा काल का वर्णन कुछ इस प्रकार कि उस समय सर्वत्र दुःख ही दुःख का बोलबाला रहेगा। जैन मान्यतानुसार इस काल में जो भी प्राणी बचेंगे, वे असहनीय दुःख-पीडा, रोग-शोक, काम-क्रोध, लोभ, भय, मद, अहंकार आदि से ग्रसित रहेंगे। सर्वत्र अशांति, कलह और पाप कर्मों की अधिकता रहेगी। व्यापार, पशुधन, वनस्पति आदि समाप्त हो जाएंगे तथा मनुष्य की आयु घटते-घटते मात्र बीस वर्ष रह जायेगी तथा उसका देहमान भी एक हाथ प्रमाण ही रह जायेगा। सर्वत्र मांसाहार का प्रयोग होने लगेगा। मनुष्य का जीवन स्तर पशुओं से भी बदतर हो जाएगा। यह विवरण सुनकर युवा हृदय नाना के विचारों में अंतर्द्वन्द हुआ कि मैंने चार गति चौरासी लाख योनियों में दुर्लभ यह मानव तन पाया है इसलिए मुझे इस भव को यों ही नहीं गंवाना है वरन् तीन मनोरथ को पूर्ण कर मुक्ति को प्राप्त करना है। मेरे जीवन के सारे प्रयास अब इसी दिशा में होने चाहिए कि मैं जीवन के अंतिम लक्ष्य (निर्वाण) को प्राप्त कर सकूं। उनके इस चिन्तन ने ही उन्हें वैराग्य पथ पर अग्रसर किया।

योग्य गुरु की प्राप्ति

जीवन के अंतिम लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु नाना के लिए यह आवश्यक था कि वो श्रावक जीवन से श्रमण जीवन अंगीकार करें अर्थात् आगार से अनगार बनें। इस हेतु उन्हें एक योग्य गुरु की आवश्यकता थी। योग्य गुरु की खोज हेतु उन्होंने अनेक जगह तलाश की, अनेक संत-महात्माओं के प्रवचन सुने। कई संत-महात्माओं ने उन्हें अपना चेला बनाने हेतु कई प्रकार के प्रलोभन भी दिए किन्तु वो इन प्रलोभनों से सदैव दूर रहे और योग्य गुरु की तलाश का उनका प्रयास अनवरत जारी रहा। योग्य गुरु की तलाश करते-करते नाना कोटा में विराजित तत्कालीन युवाचार्य श्री गणेशलालजी म.सा. के पास पहुँचे। पूज्य श्री गणेशलालजी म.सा. के प्रवचन से वे अत्यन्त प्रभावित हुए। उनके मुखमण्डल की आभा और तेज ने उन्हें अत्यधिक प्रभावित किया। तब उन्होंने विनम्रतापूर्वक निवेदन किया कि भगवन्! मुझे इस संसार चक्र से मुक्ति प्राप्त करनी है। मैं आपका शिष्य बनना चाहता हूँ किन्तु पूज्य श्री गणेशलालजी म.सा. सच्चे अर्थों में निःस्पृही साधक थे। उन्हें शिष्य लोभ तनिक मात्र भी नहीं था। उन्होंने तत्काल ही नाना से कहा कि साधु बनना कोई सहज कार्य नहीं है, तलवार की तीक्ष्ण धार पर चलने से भी अधिक कठिन एवं दुष्कर कार्य है। पाँच महाव्रतों का पालन और इन्दिय विजय करना कोई सहज बात नहीं है। अतः आवेश में अथवा जल्दबाजी में साधु बनने का निर्णय करने की अपेक्षा तुम्हारे लिए यही श्रेयस्कर है कि गृहस्थ जीवन में रहकर ही सदाचार का पालन करो। किन्तु युवा मन नाना यह समझ चुके थे कि ये ही मेरे सच्चे गुरु हो सकते हैं। ये ही मुझे इस संसार चक्र से मुक्त करने में सहयोगी बन सकते हैं।
योग्य गुरु के रूप में उन्होंने मन ही मन गणेशाचार्य को अपना गुरु मान लिया और वैराग्यवस्था में उन्हीं के साथ रहने लगे। गणेशाचार्य ने भी मुमुक्षु नाना की वैराग्यवस्था की सम्यक परीक्षा की और यह अनुभव किया कि यह वैरागी अवश्य ही भविष्य में बडा महापुरुष बनेगा। इसकी वैराग्यभावना प्रबल है अतः इसे दीक्षा दी जा सकती है। अपने गुरु से दीक्षा प्रदान करने का यथेष्ट संकेत प्राप्त कर मुमुक्षु नाना ने दीक्षा की सभी आवश्यक क्रियाओं को पूर्ण करने हेतु सर्वप्रथम अपने परिजनों से आज्ञापत्र प्राप्त करने का निवेदन किया किन्तु परिजनों ने सहज ही आज्ञा नहीं दी। तब मुमुक्षु नाना ने अट्ठम तप (तेला) की आराधना की तथा यह प्रतिज्ञा की कि जब तक आज्ञा नहीं मिलेगी मैं पारणा नहीं करूंगा। मुमुक्षु नाना की दीक्षा लेने की तीव्र भावना ने परिजनों को उनकी संयम साधना में सहयोगी बनने हेतु मजबूर कर दिया और उन्होंने यह जानकर कि सुयोग्य गुरु के सानिध्य में यह दीक्षा लेने वाले हैं, ऐसा योग्य गुरु सहज ही नहीं मिलता। यह सब सुखद संयोग जानकर दीक्षा हेतु आज्ञापत्र प्रदान कर दिया। यह क्षण मुमुक्षु नाना के लिए परमसौभाग्य का अवसर था क्योंकि जिस लक्ष्य को वो प्राप्त करना चाहते थे अब उस दिशा में आगे बढ़ने का अवसर प्राप्त हो गया। परिजनों से आज्ञा प्राप्त होने पर मुमुक्षु नाना की दीक्षा का पावन प्रसंग उपस्थित हुआ और दांता गाँव के पास ही कपासन ग्राम में वि.सं. १९९६ पौष शुक्ल अष्टमी को चतुर्विध संघ की सहमति प्राप्त कर पूज्य श्री गणेशाचार्य ने मुमुक्षु नाना को जैन भागवती दीक्षा के प्रत्याख्यान करवाये। अपार जनसमूह जय-जयकार करने लगा। वस्तुतः यह एक ऐसा प्रसंग था जब एक सुयोग्य गुरु को सुयोग्य शिष्य की प्राप्ति हुई थी। यही मुमुक्षु नाना अब नवदीक्षित संत श्री नानालालजी म.सा. के नाम से संबोधित किए जाने लगे।
नवदीक्षित संत श्री नानालालजी म.सा. अपनी संयमीचर्या के साथ-साथ आगमों के तलःस्पर्शी ज्ञान हेतु सदैव प्रयत्नशील रहते थे। संयमी क्रियाओं के अतिरिक्त उनका सारा समय ज्ञानाराधना में ही लगा रहता था। अपनी प्रखर मेधाशक्ति और तलस्पर्शी ज्ञान से वो शीघ्र ही अपने गुरु के अतिप्रिय हो गये। अल्पसमय में ही उन्होंने हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओं का ज्ञान प्राप्त कर लिया था तथा इन विविध भाषाओं के वो निष्णात हो गए थे। साथ ही विभिन्न धर्म-दर्शनों का गहन अध्ययन कर अपनी प्रखर प्रतिभा को उन्होंने प्रकट कर दिया था। अंग, उपांग, छेदसूत्र, चूलिकासूत्र, मूलसूत्र, न्याय, भाषा, टीका, चूर्णि आदि के वे गहन अध्येता बन गए थे। न केवल जैन दर्शन वरन् वेद, पुराण, गीता, महाभारत, कुरान जैसे अनेक धार्मिक ग्रंथों का भी आपने प्रणयन कर लिया था। उसी का परिणाम था कि आपके प्रवचनों में वाणी की ओजस्विता के साथ विचारों की गंभीरता झलकती थी।
संयमीचर्या के साथ आपकी विनयशीलता भी अत्यन्त प्रभावित करने वाली थी। अपने गुरु के इशारे मात्र से अवगत होकर तदनुरूप आप आचरण करते थे। सम्यग्ज्ञान, दर्शन और चारित्र की प्राप्ति हेतु अनेक परीषहों एवं उपसर्गों को समभावपूर्वक अपनी विशिष्ट क्षमता के साथ आपने सहन किया तथा अपनी विलक्षण प्रतिभा से अपने गुरु पूज्य श्री गणेशाचार्य को अत्यधिक प्रभावित किया। पूज्य गणेशाचार्य ने भी आपके जीवन निर्माण में अत्यधिक परिश्रम किया था।

युवाचार्य पद प्राप्ति

बात उस समय की है जब पूज्य गणेशाचार्य स्वास्थ्य की दृष्टि से उदयपुर में स्थिरवास कर रहे थे। पूज्य श्री नानालालजी म.सा. उनकी पूर्णनिष्ठा भाव से सेवा-सुश्रुषा कर रहे थे, पूज्य गणेशाचार्य के स्वास्थ्य में निरन्तर गिरावट को देखते हुए श्रावक वर्ग संघ के आगामी नेतृत्व को लेकर अत्यन्त चिंतित था और उन्होंने अपनी यह चिन्ता एक दिन पूज्य गुरुदेव के चरणों में रखी। गुरुदेव ने श्रावकों को आश्वस्त करते हुए कहा कि योग्य समय पर मैं संघ को अपने उत्तराधिकारी के रूप में ऐसा गुदडी का लाल दूंगा जिसे देखकर सभी आश्चर्य करेंगे और उसके द्वारा जिनशासन की जो प्रभावना की जायेगी उसे देखकर तो आप लोग भी चकित रह जाएंगे। मुनि श्री नानालालजी म.सा. की तप-साधना और ज्ञान से पूज्य श्री गणेशाचार्य कितने प्रभावित थे यह उनके वक्तव्य से सहज ही परीलक्षित होता है।
उदयपुर का राजमहल जो मेवाड़ की आन-बान-शान का प्रतीक है, उसी राजमहल में हजारों की संख्या में उपस्थित श्रावक-श्राविकाओं, श्रमण-श्रमणियों के सम्मुख आसोज सुदी 2, संवत् 2009 को पूज्य श्री गणेशाचार्य ने मुनि श्री नानालालजी को युवाचार्य की चादर प्रदान की। यह क्षण सदैव चिरस्मरणीय रहेगा क्योंकि पूज्य गणेशाचार्य ने एक योग्य शिष्य को यह महत्वपूर्ण भार सौंपकर जिनशासन का बडा उपकार किया था। उपस्थित चतुर्विध संघ को यह पूर्ण विश्वास था कि युवाचार्य श्री नानालालजी म.सा. वास्तव में संघ को अपनी नेतृत्व क्षमता से नई ऊँचाई प्रदान करेंगे।

आचार्य पद की प्राप्ति

सं. 2019 माघ कृष्णा 2, को उदयपुर में पूज्य श्री गणेशाचार्य का संथारापूर्वक समाधिमरण हुआ तब युवाचार्य श्री नानालालजी म.सा. आचार्य पद पर आसीन हुए। यह वह समय था जब पूज्य श्री गणेशलालजी म.सा. श्रमण संघ में साध्वाचार के विपरीत क्रिया को देखकर श्रमण संघ से विलग हुए ही थे और इसी समय युवाचार्य श्री नानालालजी म.सा. का आचार्य बनना तथा संघ को सम्यक् प्रकार से मार्गदर्शन देना अत्यन्त कठिन था क्योंकि अनेक संघों को यह सहज में स्वीकार नहीं था कि आचार्य श्री नानालालजी म.सा. के नेतृत्व में साधुमार्गी जैन संघ शुद्धाचार के साथ गतिमान रहे। इस विपरीत वातावरण में भी आचार्य श्री नानालालजी म.सा. ने अपनी प्रखर प्रतिभा, आचार की पवित्रता और विचारों की गंभीरता से संघ को ऐसा नेतृत्व प्रदान किया जो आज भी सभी के मानसपटल पर चलचित्र की तरह अंकित है। अपनी विलक्षण प्रतिभा से वो संघ को नित नई ऊँचाइयाँ प्रदान करते गए।

आचार्यत्वकाल की विशिष्ट उपलब्धियाँ

आचार्य श्री नानालालजी म.सा. का आचार्यत्वकाल अनेक उपलब्धियों से परिपूर्ण रहा। आप अत्यन्त सरलमना थे। कथनी और करनी में कभी कोई अंतर आप में दिखाई नहीं देता था। संत-सती और श्रावक-श्राविका तो क्या नन्हें बालक के प्रति भी आपका व्यवहार देखने लायक था। जैन-अजैन सभी आपकी वाणी और व्यवहार से अत्यन्त प्रभावित होते थे। श्रमण जीवन अंगीकार कर आत्मकल्याण के साथ-साथ आपने परोपकार के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन अर्पित कर दिया था।

समता दर्शन प्रणेता

विश्व में सर्वत्र हिंसा, आतंकवाद, गृहयुद्ध आदि की विभीषिका दृष्टिगोचर होती है। सर्वत्र विषमता, वैमनस्यता, विभेद, विघटन और विसंगति की प्रधानता दिखाई देती है। कहीं पर भी सुख-शांति, सौहार्द, स्नेह और सहकार की भावना देखने को नहीं मिलती। इस अशांत वातावरण को यदि कोई शांति का सौरभ प्राप्त करा सकता है तो वह है भगवान महावीर की अहिंसापरक समता। आचार्य श्री नानेश ने व्यक्ति से लेकर विश्व तक को इस अशांत वातावरण से शांत वातावरण प्राप्त करने हेतु समता-दर्शन की परिपालना करना आवश्यक बतलाया और इसे सकारात्मक रूप देने हेतु समता-दर्शन और व्यवहार पुस्तक में चार सिद्धान्त प्रतिपादित किए- समता सिद्धान्त दर्शन, समता जीवन दर्शन, समता आत्मदर्शन, समता परमार्थ दर्शन। आचार्य भगवन् ने संयमी मर्यादा के अनुरूप अपने उद्बोधन में समता दर्शन के इन चार सोपानों को मूल बिन्दु बनाकर समता समाज की स्थापना हेतु २१ सूत्रों के माध्यम से समता दर्शन की विशद् व्याख्या प्रस्तुत की। आचार्य श्री नानेश ने युगीन समस्याओं को समझा और अपने चिन्तन के धरातल पर इसके समाधान हेतु समता दर्शन को अपनाया। यदि विश्व के सभी राष्ट्र इस समता दर्शन को अपना लें तो विश्व में स्थायी शान्ति प्राप्त हो सकती है। वर्तमान आचार्य-प्रवर श्री रामेश अपने प्रवचन में फरमाते हैं कि आचार्य श्री नानेश ने ‘समियाए धम्मे’ अर्थात् समता ही धर्म है की विशद् व्याख्या करते हुए स्थापित किया कि समता-धर्मतत्त्व के रूप में बिन्दु से सिन्धु तक और कण से सुमेरू तक व्याप्त है। समता-योगी का संबोधन आचार्य श्री नानेश को यों ही नहीं मिला था। उन्होंने जीवनभर समता की साधना की थी, उसकी व्याख्या की थी और उसके दर्शन को स्थापित एवं लोकप्रिय तथा अनुकरणीय बनाने के लिए अथक प्रयास किये थे।

समीक्षण ध्यान योगी

विश्व में आज मनुष्यों में शरीर को स्वस्थ रखने की तीव्र अभिलाषा का परिणाम है कि ध्यान साधना की विविध पद्धतियाँ दृष्टिगोचर हो रही हैं। ध्यान की विविध प्रचलित पद्धतियों से जनमानस को संतोष प्राप्त नहीं हो पा रहा था क्योंकि ये सभी पद्धतियाँ मात्र व्यक्ति के शारीरिक संतुलन तक ही सीमित थी किन्तु आचार्य श्री नानेश तो स्वयं महान ध्यान योगी थे। आपने ध्यान साधना की विलक्षण पद्धति समीक्षण ध्यान प्रस्तुत की जो व्यक्ति को शारीरिक संतुलन से आगे बढ़कर तनाव-मुक्ति के साथ-साथ आत्मशान्ति प्रदान कर सके। समीक्षण ध्यान साधना पद्धति को अपनाकर व्यक्ति अपना बाह्य एवं आभ्यंतर विकास कर सकता है।

संयम प्रदाता

आचार्य श्री नानेश ने अपने आचार्यत्वकाल में अनेक मुमुक्षु आत्माओं को जैन भागवती दीक्षा प्रदान कर उन्हें आगार से अनगार धर्म में प्रवेश करवाया। ऐसा करके उन्होंने जिनशासन की अपूर्व प्रभावना की। आपकी नेश्राय में कुल 59 संत एवं 310 सतियों ने जैन भागवती दीक्षा अंगीकार की थी। एक साथ 2, 5, 7 दीक्षाएँ तो कई बार हुई किन्तु एक साथ उदयपुर में 15, बीकानेर में 21 तथा रतलाम में 25 दीक्षाएँ होना कीर्तिमान ही माना जाएगा। तीर्थंकर भगवान महावीर के पश्चात् ऐसा कोई विवेचन सुनने में नहीं आया कि किसी एक आचार्य द्वारा एक साथ 15, 21 और 25 मुमुक्षु आत्माओं को जैन भागवती दीक्षा प्रदान की गई हो। आचार्यश्री के संयमी जीवन और सुदृढ क्रिया का ही परिणाम है कि अनेक मुमुक्षु उनके सानिध्य में संयमी जीवन अंगीकार करने को लालायित रहते थे।

धर्मपाल प्रतिबोधकः-

आचार्य भगवन् जब मालवा प्रान्त में विचरण कर रहे थे तब आपको ज्ञात हुआ कि यहाँ बहुसंख्यक बलाई जाति के लोग माँसाहार करते हैं। आचार्य भगवन् ने हिंसक कार्यों में प्रवृत्त ऐसे लोगों को सदाचारपूर्ण जीवन व्यतीत करने का मार्मिक उद्बोधन दिया। सन् 1963 के रतलाम चातुर्मास के उपरांत गुराडिया ग्राम से धर्मपाल प्रवृत्ति का शुभारंभ हुआ जब आचार्य भगवन् के प्रवचन और उनके व्यक्तिगत आचरण से प्रभावित होकर हजारों बलाइयों ने माँसाहार का त्याग कर अपने जीवन को सदाचार की ओर प्रवृत्त करने का संकल्प लिया। ऐसे लोगों को धर्मपाल के नाम से संबोधित किया गया। आचार्य भगवन् के इस क्रांतिकारी और ऐतिहासिक कार्य के लिए जनता ने आपको धर्मपाल प्रतिबोधक की उपाधि से विभूषित किया। धर्मपालों के उत्थान और उन्हें समाज की मुख्यधारा में जोडने हेतु संघ ने उस क्षेत्र में व्यापक प्रयास किए। इसी का परिणाम है कि आज धर्मपालों की संख्या हजारों से बढ़कर लाखों में पहुँच गई है। धर्मपालों के कल्याण हेतु दिलीपनगर रतलाम में छात्रावास एवं अन्य सेवा-प्रकल्प गतिमान हैं।

साहित्यिक उपलब्धि

आचार्य श्री नानेश ने विश्व को समता-दर्शन से परिचित कराने हेतु समता-दर्शन और व्यवहार नामक पुस्तक में अपना जो मौलिक चिन्तन प्रस्तुत किया, उससे यह पुस्तक सर्वत्र समादृत हुई है तथा इस पुस्तक के अनेक संस्करण विविध भाषाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आचार्यश्री की वाचना और उनके प्रेरक उद्बोधनों को संकलित कर संघ द्वारा विविध साहित्य की रचना की गई है। जिनमें कर्मप्रकृति, गुणस्थान सिद्धान्त, क्रोध समीक्षण, मान समीक्षण, माया समीक्षण, लोभ समीक्षण, आत्मसमीक्षण, गहरी पर्त के हस्ताक्षर, कुंकुम के पगलिए, नल-दमयंती, जवाहराचार्य यशोविजयम् महाकाव्य आदि महत्त्वपूर्ण कृतियाँ हैं। साथ ही आचार्य भगवन् ने आचारांगसूत्र, भगवतीसूत्र, अंतकृतदशांगसूत्र एवं कल्पसूत्र आदि शास्त्रों की विशद् व्याख्या प्रस्तुत की। जैन धर्म एवं दर्शन के सार रूप में आचार्य भगवन् प्रणित जिणधम्मो पुस्तक जैन-अजैन सभी के लिए अत्यन्त उपयोगी पुस्तक है। इसके अतिरिक्त भी आचार्यश्री के प्रवचनों का संकलन कर संघ द्वारा विविध भाषाओं में बहुविध साहित्य प्रकाशित किया गया है।

युवाचार्य का चयन

प्रायः देखा गया है कि किसी भी धर्म के संस्थापक एवं धर्म प्रवर्तक महापुरुष के निर्वाण अथवा देहावसान के पश्चात् उनके संघ अथवा सम्प्रदाय में नेतृत्व के प्रश्न को लेकर बिखराव होना प्रारंभ हो जाता है, कभी-कभी यह बिखराव ऐसे महापुरुषों के जीवनकाल में भी हो जाता है। जैन संघ भी बिखराव की इस प्रक्रिया से विलग नहीं रह सका। जैन आगमों का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि नेतृत्व एवं वैचारिक मतभेद की प्रक्रिया भगवान महावीर के जीवनकाल में ही प्रारंभ हो चुकी थी जब स्वयं महावीर के जमाता जमाली ने महावीर के संघ से पृथक होकर अपना नया सिद्धान्त बहुतरवाद चलाया। स्मृतिशेष आचार्य श्री नानालालजी म.सा. को भी अपने जीवनकाल में ही अपने ही कतिपय शिष्यों को उस समय संघ से निष्कासित/बहिर्भूत करना पडा जब उन्होंने युवाचार्य के चयन के उनके निर्णय को मानने से इनकार कर दिया था।
समता विभूति आचार्य-प्रवर श्री नानेश ने अपनी प्रखर प्रतिभा से अपने समस्त शिष्यों में से सर्वाधिक योग्य तरुण तपस्वी, सेवाभावी, आगममर्मज्ञ, व्यसनमुक्ति के प्रेरक मुनि श्री रामलालजी म.सा. को थार की मरुभूमि, मानव सभ्यता की उषाकाल की साक्षी, सारस्वत सभ्यता का हृदयस्थल, शौर्य, त्याग, बलिदान, विद्या अध्ययन का केन्द्र बिन्दु, सीमा प्रहरी की ऐतिहासिक नगरी बीकानेर के भव्य दुर्ग जूनागढ़ के राजप्रासाद में फाल्गुन शुक्ला 3, सं. 2048 तदनुसार 7 मार्च, 1992 को गौरव गरिमामण्डित श्रीसंघ के एक और नायक का चयन कर इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ पर आचार्य सुधर्मा के 82वें पट्टधर के रूप में युवाचार्य रूपी धवल चादर प्रदान की, जिसे मुनि श्री रामेश ने गुरुआज्ञा के रूप में स्वीकार किया। सन् 1992 से 1995 तक आचार्यश्री के इस निर्णय को लेकर शिष्यों में कोई मतभेद दृष्टिगोचर नहीं हुआ किन्तु सन् 1996 में आचार्यश्री के ही कतिपय शिष्य नेतृत्व की महत्त्वाकांक्षा को लेकर संघ से निष्कासित/बहिर्गमित हो गए। संघ में हुए इस घटनाक्रम से आंशिक ऊहापोह की स्थिति होना स्वाभाविक था किन्तु जीवन के अंतिम पड़ाव में भी आचार्य श्री नानेश ने उस स्थिति का समतापूर्वक न केवल सामना किया वरन् संघ को स्थिरता प्रदान की। आचार्य श्री नानेश द्वारा चयनित युवाचार्य श्री रामेश ने अपनी प्रखर प्रतिभा और दृढ़ क्रिया के आधार पर साधुमार्गी जैन संघ को जो ऊँचाइयाँ प्रदान की है और अनवरत कर रहे हैं वह श्लाघनीय है और उस आधार पर कहा जा सकता है कि आचार्य श्री नानेश का युवाचार्य के रूप में मुनि श्री रामलालजी म.सा. का चयन सर्वाधिक सार्थक एवं सम्यक् निर्णय था।

समाधिमरण एवं मुक्ति की प्राप्ति

जैन परम्परा के सामान्य आचार नियमों में संलेखना या संथारा (मृत्युवरण) एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है। जैन गृहस्थ उपासकों एवं श्रमण साधकों दोनों के लिए समाधिमरण पूर्वक मृत्युवरण का विधान जैनागमों में उपलब्ध होता है। समाधिमरण में मनुष्य का मृत्यु पर शासन होता है। जबकि अनिच्छापूर्वक मरण में मृत्यु मनुष्य पर शासन करती है। पहले को पंडितमरण कहा गया है, जबकि दूसरे को बाल (अज्ञानी) मरण कहा गया है। जीवन की सांध्यवेला में सामने उपस्थित मृत्यु का जो स्वागत करता है और उसे आलिंगन देता है मृत्यु उसके लिए निरर्थक हो जाती है और वह मृत्यु से निर्भय हो जाता है तथा अमरता की दिशा में आगे बढ़ जाता है। जो साधक मृत्यु से भागता है वह सच्चे अर्थ में अनासक्त जीवन जीने की कला से अनभिज्ञ है। जिसे अनासक्त मृत्यु की कला नहीं आती उसे अनासक्त जीवन की कला भी नहीं आ सकती। इसी अनासक्त मृत्यु की कला को भगवान महावीर ने संलेखना/समाधिमरण कहा है। आचार्य नानेश ने जीवनपर्यन्त अपने आत्मबल पर संयमीचर्या का पालन करते हुए जिनशासन की गरिमा में अभिवृद्धि की और जीवन की सांध्यवेला में सामने उपस्थित मृत्यु को शांत भाव से स्वीकार किया। छः माह से अधिक समय रहा होगा जब आपके स्वास्थ्य में निरन्तर गिरावट बढती जा रही थी और आपका शरीर क्षीण होता जा रहा था, इस स्थिति में भी आप आत्मलीन होकर मानो समाधि अवस्था को प्राप्त हो चुके हैं, ऐसा प्रतीत होता था। अपनी अस्वस्थता से आचार्य भगवन् पूर्ण परिचित थे इसलिए वो युवाचार्य श्री रामेश को कई बार यह कह चुके थे कि अंतिम समय में मैं कहीं खाली हाथ नहीं चला जाऊँ। युवाचार्यजी सदैव उन्हें आश्वस्त करते रहते कि आप खाली हाथ नहीं जाएंगे, अंतिम समय में आपको समाधिमरण का प्रत्याख्यान अवश्य करवायेंगे। 27 अक्टूबर, 1999 की बात है, उदयपुर की पौषधशाला में विराजित आचार्यश्री के स्वास्थ्य में अत्यधिक गिरावट आई। तब युवाचार्य भगवन् ने आचार्यश्री से पुछा कि क्या आपको संथारे का पच्चक्खाण करवा दें। आचार्य भगवन् ने इस हेतु तत्काल अपनी सहमति दी और पूर्ण सजग अवस्था में प्रातः 9:45 बजे तिविहार संथारा ग्रहण किया। पुनः चतुर्विध संघ की उपस्थिति में सायंकाल 5:30 बजे युवाचार्य श्री रामेश से चौविहार संथारा ग्रहण कर लिया, इसके साथ ही आचार्य-प्रवर पूर्ण शांति की अवस्था में समताभाव से आत्मसमाधि में लीन हो गए। वहाँ का दृश्य देखते ही बनता था।
आचार्य श्री नानेश के महाप्रयाण के पश्चात् कार्तिक बदी 3, वि.सं. 2056 को युवाचार्य श्री रामेश को उदयपुर में आचार्य पद की चादर ओढ़ाई गई। आचार्य श्री रामेश ने अपने पूर्ववर्ती आचार्यों का अनुसरण करते हुए संघ एवं जिनशासन की गरिमा में जो अभिवृद्धि की है तथा अनवरत कर रहे हैं, वह श्लाघनीय है।

आचार्य श्री रामलाल जी म. सा.

आचार्य श्री रामलाल जी म. सा.

व्यसनमुक्ति के प्रबल प्रेरक आचार्य-प्रवर श्री रामलालजी म.सा. का जीवन परिचय

निवासी देशनोक
पिता का नाम श्री नेमचन्दजी
माता का नाम श्रीमती गवराबाई
गोत्र भूरा
जन्म तिथि चैत्र सुदी 14, वि.सं. 2009
दीक्षा तिथि माघ सुदी 12, वि.सं. 2031
दीक्षा स्थल देशनोक
दीक्षा गुरु आचार्य श्री नानेश
दीक्षा के समय उम्र 22 वर्ष 9 माह 8 दिन
युवाचार्य पद तिथि फाल्गुन सुदी 3, वि.सं. 2048
युवाचार्य पद प्रदान स्थल बीकानेर
युवाचार्य पद के समय दीक्षा पर्याय 17 वर्ष 21 दिन
युवाचार्य पद के समय उम्र 39 वर्ष 10 माह 10 दिन
युवाचार्य काल में दीक्षा (संतों की) 9
आचार्य पद तिथि कार्तिक बदी 3, वि.सं. 2056
आचार्य पद स्थल उदयपुर
आचार्य पद के समय उम्र 47 वर्ष 6 माह 4 दिन
आचार्य पद के समय दीक्षा पर्याय 24 वर्ष 6 माह 6 दिन
शासनकाल में दीक्षा (संत-सती की) 254

निर्ग्रन्थ श्रमण संस्कृति के अद्वितीय चिराग

विश्व गुरु की उपमा से उपमित भारत प्रारम्भ से ही महापुरुषों का देश रहा है। प्रत्येक युग में किसी न किसी महापुरुष का अवतरण होता है और वे विरल आत्माएँ संसार की असारता को जानकर निरंजन-निराकार स्वरूप बनने के लिये प्रभु महावीर के शासन में प्रव्रजित होकर आत्मा से महात्मा, महात्मा से परमात्मा बनने के लिये प्रयत्नशील रहती हैं। ऐसी ही एक पुण्यात्मा आज से लगभग 69 वर्ष पूर्व राजस्थान के बीकानेर जिले के प्रसिद्ध गाँव देशनोक में माता गवरादेवी की कोख से अवतरित हुई, जिसने पिता नेमि के कुल को उज्ज्वल किया।
भगवान महावीर और गौतम बुद्ध की माताओं ने अद्भुत अपूर्व स्वप्न देखे थे। ऐसे ही माता गवराबाई ने अर्द्धरात्रि में एक शुभ स्वप्न देखा कि किसी अदृश्य शक्ति ने उनकी गोद में एक दीप्तिमंत बालक को लाकर रख दिया। नौ माह बाद जिस बालक का जन्म हुआ वह पहले जयचंद बाद में रामलाल बना। उसके बाद साधुमार्गी परम्परा के हुक्मगच्छ का नौवां पट्टनायक बनकर आचार्य श्री रामलालजी म.सा. अथवा रामेश के रूप में धर्म प्रभावना के पुनीत कार्य में संलग्न हैं।

आचार्य श्री नानेश ने मुनि रामलालजी को अपने पास रखकर उन्हें दीक्षा के योग्य बनाने का कार्य प्रारम्भ किया। आचार्यश्री ने मुनि रामलालजी को अपने पास रखकर उन्हें दीक्षा के योग्य बनाने का कार्य प्रारम्भ किया। मुनि रामलालजी ने आचार्यश्री के सानिध्य में रहकर आगम शास्त्रों का गहन अध्ययन किया। आचार्यश्री ने मुनि रामलालजी को अपने पास रखकर उन्हें दीक्षा के योग्य बनाने का कार्य प्रारम्भ किया। मुनि रामलालजी ने आचार्यश्री के सानिध्य में रहकर आगम शास्त्रों का गहन अध्ययन किया। आचार्यश्री ने मुनि रामलालजी को अपने पास रखकर उन्हें दीक्षा के योग्य बनाने का कार्य प्रारम्भ किया। मुनि रामलालजी ने आचार्यश्री के सानिध्य में रहकर आगम शास्त्रों का गहन अध्ययन किया। आचार्यश्री ने मुनि रामलालजी को अपने पास रखकर उन्हें दीक्षा के योग्य बनाने का कार्य प्रारम्भ किया। मुनि रामलालजी ने आचार्यश्री के सानिध्य में रहकर आगम शास्त्रों का गहन अध्ययन किया।
सरदारशहर चातुर्मास में आचार्यश्री के पास रहकर ज्ञानार्जन करते रहे। शीघ्र दीक्षा के लिए आतुर राम बीदासर, देशनोक, नोखा, गंगाशहर, भीनासर आदि स्थानों पर संबंधियों से दीक्षा में सहयोगी बनने का निवेदन करता घूमता रहा। अंत में मातुश्री एवं भ्राताश्री से आज्ञापत्र प्राप्त करने जदिया जाना पड़ा। राम की दीक्षा हेतु उत्कृष्ट भावना देखकर उन्होंने आज्ञापत्र पर हस्ताक्षर कर दिये। इसके उपरान्त शेष औपचारिकताएँ भी पूर्ण हो गई। माघ शुक्ला 12, वि.सं. 2031 को देशनोक में मुमुक्षु राम का दीक्षा कार्यक्रम सम्पन्न हो गया। दीक्षा के बाद मुनि रामलालजी के अलग विहार कराने का प्रसंग बना, परन्तु आचार्यश्री ने उन्हें अपने पास ही रखने का निर्णय किया।
आचार्यश्री का मुनि राम को अपने साथ रख लेने का निर्णय मात्र संयोग नहीं था। लगता है आचार्य-प्रवर ने मुनि राम की पात्रता परखने तथा भावी उत्तराधिकारी का प्रशिक्षण देने के लिए ऐसा किया होगा। राम मुनि में उन्हें भी निश्चित रूप से उन गुणों की झलक दिखाई होगी, जो किसी मुनि को युवाचार्य और तदुपरान्त आचार्य के गौरवशाली पद तक पहुँचाते हैं। उनकी दिव्यदृष्टि ने अनगढ़ रत्न को पहचान लिया होगा और उसे तराशने का कार्य करने का संकल्प लिया होगा।
मुनि राम का आगम शास्त्रों का गहन अध्ययन सतत गतिमान था, जो जोधपुर चातुर्मास के दौरान प्रखरतर हो गया। उनकी योग्यता, प्रतिभा और निष्ठा से प्रभावित होकर पूज्य गुरुदेव ने अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य विद्यार्थी मुनि पर छोड़ दिये। आपका शास्त्रीय एवं आध्यात्मिक ज्ञान कितना गहन था इसका प्रमाण तो वह पत्र है जो तत्वज्ञानी श्रावकवर्य श्री लालचन्दजी नाहटा ने अपनी जिज्ञासाओं का समाधान प्राप्त होने पर लिखा था। उन्होंने लिखा था- परमागम रहस्यज्ञाता श्री राममुनिजी म.सा. द्वारा आगमिक जिज्ञासाओं के समाधान में अपूर्व प्रतिभा देखकर मैं चमत्कृत हो गया। कुछ समाधान तो प्रचलित धारणाओं से हटकर भी इतने युक्तियुक्त और प्रभाव पुरस्सर है कि देखकर स्थानीय विद्वान् भी दंग रह गये। मुनि राम की ऐसी अनोखी प्रतिभा और विद्वत्ता को देखकर ही आचार्य श्री नानेश ने इन्हें 22 सितंबर, 1990 को चित्तौड़गढ़ में मुनिप्रवर पद से विभूषित कर चातुर्मासिक विनंतियाँ सुनने, चातुर्मास की घोषणा करने, संघों के विवाद सुनकर समाधान करने का अधिकार प्रदान कर दिया। तत्पश्चात् उन्हें ही युवाचार्य यानी अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया।
आचार्य श्री नानेश ने अपने साक्षात्कार में मुनि रामेश की पात्रता को पुष्ट करते हुए कहा था- युवाचार्य श्री रामलालजी म.सा. लगभग 19-20 वर्षों से वैराग्यकाल से ही मेरे पास रह रहे हैं। मैंने उन्हें यथाशक्ति नजदीक से देखा है। उनकी निष्पक्षता, न्यायप्रियता, निर्ग्रन्थ-श्रमण संस्कृति पर दृढ आस्था, पूर्व के आचार्यों द्वारा निर्ग्रन्थ श्रमण संस्कृति की रक्षा हेतु उठाये गये चरणों के प्रति समर्पण आदि अनेक विशेषताओं को ध्यान में रखकर मैंने उन्हें अपना उत्तराधिकारी घोषित किया है। यह थी परख उस जौहरी की, जिसने हीरे को लगभग 20 वर्षों तक परखा।
कहना तो यह चाहिये कि परखा ही नहीं, उन बीस वर्षों में उसे धीरे-धीरे तराशा भी और जब वह तराश पूरी हो गई, तो एक जगमगाते हीरे का उज्ज्वल रूप उसमें प्रगट हो गया, तब उसे चतुर्विध संघ के मुकुट में शीर्ष स्थान पर जड दिया। आज वह हीरा भानु के समान चमक रहा है।
आचार्य श्री नानेश के महाप्रयाण के बाद कार्तिक बदी 3, वि.सं. 2056 को युवाचार्य रामेश को आचार्य पद की चादर ओढाई गई। इस प्रकार उन पर अपने पूर्ववर्ती आचार्यों की जिम्मेदारियाँ डाल दी गई थी। आचार्य श्री नानेश द्वारा प्रारंभ किये गये समाज-सुधार और संस्कार सुधार के कार्यक्रमों को निर्धारित दिशा में आगे बढा रहे हैं। आचार्य बनने के बाद आपका प्रथम चातुर्मास जयपुर हुआ। चित्तौड़गढ़ जिले के मंगलवाड चौराहे के निकटवर्ती गाँवों में निवास करने वाली बावरी जाति के लोगों में भी अपने उद्धार की प्रेरणा उत्पन्न हुई। उन्हें विश्वास था कि धर्मपाल प्रतिबोधक आचार्य श्री नानेश के उत्तराधिकारी इनका भी उद्धार कर सकते हैं। इसी विश्वास के बल पर बावरियों के लगभग 25 गाँवों के प्रमुख प्रतिनिधियों के रूप में 132 व्यक्ति आचार्य श्री रामेश के चरणों में उपस्थित हुए। आचार्यदेव ने उनकी पीड़ा समझी और उनकी भावना का आदर करते हुए 10 नवम्बर, 2000 को प्रातः 10:50 बजे उनसे सप्तकुव्यसनों के त्याग की प्रतिज्ञाओं का उच्चारण करवाया तथा उन्हें सदाचार, सात्विकता एवं प्रामाणिकता का तीन सूत्रीय मंत्र भी दिया। उन सभी दलितों को सिरीवाल से विभूषित किया। यह समाजोत्थान की दिशा में महत्त्वपूर्ण कार्य था। आपके 22 वर्ष के आचार्यत्व काल में लगभग 254 दीक्षाएँ हुई। आप जहाँ भी विराजते हैं वहाँ एक लघु भारत स्वतः ही एकत्र हो जाता है। आपका सुशासन सुदीर्घ एवं जन-जन के लिये कल्याणकारी बनेगा।

निर्ग्रन्थ श्रमण संस्कृति के अद्वितीय चिराग - आचार्य श्री रामलाल जी म. सा.

विश्व गुरु की उपमा से उपमित भारत प्रारम्भ से ही महापुरुषों का देश रहा है। प्रत्येक युग में किसी न किसी महापुरुष का अवतरण होता है और वे विरल आत्माएँ संसार की असारता को जानकर निरंजन-निराकार स्वरूप बनने के लिये प्रभु महावीर के शासन में प्रव्रजित होकर आत्मा से महात्मा, महात्मा से परमात्मा बनने के लिये प्रयत्नशील रहती हैं। ऐसी ही एक पुण्यात्मा आज से लगभग 69 वर्ष पूर्व राजस्थान के बीकानेर जिले के प्रसिद्ध गाँव देशनोक में माता गवरादेवी की कोख से अवतरित हुई, जिसने पिता नेमि के कुल को उज्ज्वल किया।

भगवान महावीर और गौतम बुद्ध की माताओं ने अद्भुत अपूर्व स्वप्न देखे थे। ऐसे ही माता गवराबाई ने अर्द्धरात्रि में एक शुभ स्वप्न देखा कि किसी अदृश्य शक्ति ने उनकी गोद में एक दीप्तिमंत बालक को लाकर रख दिया। नौ माह बाद जिस बालक का जन्म हुआ वह पहले जयचंद बाद में रामलाल बना। उसके बाद साधुमार्गी परम्परा के हुक्मगच्छ का नौवां पट्टनायक बनकर आचार्य श्री रामलालजी म.सा. अथवा रामेश के रूप में धर्म प्रभावना के पुनीत कार्य में संलग्न हैं।

आचार्य श्री नानेश ने मुनि रामलालजी को अपने पास रखकर उन्हें दीक्षा के योग्य बनाने का कार्य प्रारम्भ किया। मुनि रामलालजी ने आचार्यश्री के सानिध्य में रहकर आगम शास्त्रों का गहन अध्ययन किया।

सरदारशहर चातुर्मास में आचार्यश्री के पास रहकर ज्ञानार्जन करते रहे। शीघ्र दीक्षा के लिए आतुर राम बीदासर, देशनोक, नोखा, गंगाशहर, भीनासर आदि स्थानों पर संबंधियों से दीक्षा में सहयोगी बनने का निवेदन करता घूमता रहा। अंत में मातुश्री एवं भ्राताश्री से आज्ञापत्र प्राप्त करने जदिया जाना पड़ा। राम की दीक्षा हेतु उत्कृष्ट भावना देखकर उन्होंने आज्ञापत्र पर हस्ताक्षर कर दिये। इसके उपरान्त शेष औपचारिकताएँ भी पूर्ण हो गई। माघ शुक्ला 12, वि.सं. 2031 को देशनोक में मुमुक्षु राम का दीक्षा कार्यक्रम सम्पन्न हो गया।

दीक्षा के बाद मुनि रामलालजी के अलग विहार कराने का प्रसंग बना, परन्तु आचार्यश्री ने उन्हें अपने पास ही रखने का निर्णय किया। यह निर्णय मात्र संयोग नहीं था बल्कि भावी उत्तराधिकारी के प्रशिक्षण का भाग था। मुनि राम की प्रतिभा और विशेषताओं को देखते हुए उन्हें आचार्यश्री ने विशेष संरक्षण में रखा।

जोधपुर चातुर्मास के दौरान उनका अध्ययन और अधिक प्रखर हुआ। पूज्य गुरुदेव ने कई महत्त्वपूर्ण कार्य विद्यार्थी मुनि राम पर छोड़ दिये। उनके अद्वितीय ज्ञान और प्रतिभा को देखते हुए आचार्य श्री नानेश ने 22 सितंबर, 1990 को उन्हें मुनिप्रवर पद से विभूषित किया और युवाचार्य घोषित किया।

युवाचार्य बनने के बाद, आचार्य श्री नानेश ने स्वयं पुष्टि की कि रामेश लगभग 20 वर्षों से उनके साथ रहकर समर्पण, निष्पक्षता और परंपरा-निष्ठा प्रदर्शित करते रहे हैं। उन्होंने उन्हें उत्तराधिकारी घोषित किया और उस रत्न को तराश कर चतुर्विध संघ के मुकुट में जड़ दिया।

कार्तिक बदी 3, वि.सं. 2056 को आचार्य श्री नानेश के महाप्रयाण के पश्चात युवाचार्य रामेश को आचार्य पद की चादर ओढाई गई। आचार्य बनने के बाद उन्होंने समाज-सुधार एवं संस्कार सुधार कार्यक्रमों को आगे बढ़ाया।

चित्तौड़गढ़ के आसपास के गाँवों के बावरियों ने आकर अपनी पीड़ा बताई। आचार्यदेव ने उन्हें सात्विक जीवन के तीन सूत्रीय मंत्र दिए और 132 बावरियों को सिरीवाल से विभूषित किया।

आपके 22 वर्षों के आचार्यत्व काल में लगभग 254 दीक्षाएँ हुई। जहाँ भी आप विराजते हैं, वहाँ एक लघु भारत का निर्माण हो जाता है।

आपका सुशासन जन-जन के लिए कल्याणकारी सिद्ध हो — यही मंगलकामना है।

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